देशभक्ति कम, ड्रामा और डर ज़्यादा
–राजेश नरवरिया
भारत की राजनीति इस समय किसी विचारधारा से नहीं, बल्कि थिएटर से चल रही है। मंच सजा है, कैमरे ऑन हैं और किरदार तय हैं। इस नाटक का ताज़ा सीन है—वंदे मातरम्। जो गीत कभी आज़ादी की चेतना था, आज कांग्रेस की सियासी असहजता ढकने का पर्दा बन चुका है।
कांग्रेस और इतिहास की चुनिंदा याददाश्त
कांग्रेस को इतिहास याद आता है, लेकिन केवल उतना जितना उसकी राजनीति को सूट करे। वंदे मातरम् पर बहस छेड़कर पार्टी एक बार फिर यह साबित करने में जुट गई है कि उसे राष्ट्रवाद से नहीं, राष्ट्रवाद की परिभाषा पर नियंत्रण चाहिए।
कांग्रेस के कुछ नेता कह रहे हैं कि “वंदे मातरम् को ज़रूरत से ज़्यादा तूल दिया जा रहा है।” सवाल यह नहीं कि तूल कितना है, सवाल यह है कि कांग्रेस को हर बार राष्ट्र और आस्था से जुड़ा विषय असहज क्यों कर देता है? क्या देशभक्ति अब भी पार्टी के लिए एक वैचारिक बोझ है?
आज़ादी की विरासत, लेकिन राष्ट्रवाद से एलर्जी
कांग्रेस खुद को आज़ादी की सबसे बड़ी विरासतधारी बताती है, लेकिन जब वही आज़ादी का गीत गूंजता है तो पार्टी का सेक्युलर थर्मामीटर अचानक हाई अलर्ट पर चला जाता है। ऐसा लगता है जैसे पार्टी डरती हो कि कहीं “वंदे मातरम्” ज़ोर से बोल दिया गया, तो उसका वोट-बैंक हिल न जाए।
हर बार वही पुराना तर्क—“भावनाएँ भड़काई जा रही हैं”, “समाज को बाँटा जा रहा है।” लेकिन कांग्रेस कभी यह नहीं बताती कि समाज को सबसे पहले भ्रमित किसने किया?
नेहरू का नाम, ढाल की तरह
जब भी सवालों से घिरो, नेहरू का नाम आगे कर दो। वंदे मातरम् पर बहस हो तो भी, आर्थिक बदहाली हो तो भी, या पार्टी के अंदर नेतृत्व संकट हो—हर जगह नेहरू एक राजनीतिक ढाल बन जाते हैं।
नेहरू को बचाने की कोशिश में कांग्रेस यह भूल जाती है कि आज का भारत 1950 का भारत नहीं है। आज जनता सवाल पूछती है, सिर्फ़ वंश नहीं गिनती।
विपक्ष में रहकर भी सत्ता का भ्रम
कांग्रेस की सबसे बड़ी त्रासदी यह है कि वह विपक्ष में रहकर भी सत्ता के दौर की मानसिकता से बाहर नहीं आ पाई है। उसे आज भी लगता है कि राष्ट्र की व्याख्या करने का नैतिक अधिकार सिर्फ़ उसी के पास है।
वंदे मातरम् पर उसका रुख यही बताता है कि पार्टी आज भी तय नहीं कर पाई है कि वह जनता के साथ खड़ी है या अपने पुराने वोट-बैंक के डर के साथ।
असली मुद्दों से ध्यान भटकाने की कोशिश
महंगाई, बेरोज़गारी, किसानों की आय, शिक्षा और स्वास्थ्य—इन पर बोलना मेहनत माँगता है, होमवर्क माँगता है। वंदे मातरम् जैसे मुद्दों पर हंगामा करना आसान है, क्योंकि यहाँ भावनाएँ हैं, तर्क नहीं।
कांग्रेस को लगता है कि अगर बहस राष्ट्रगीत पर उलझी रहेगी, तो उसकी राजनीतिक दिशाहीनता पर सवाल कम होंगे।
जनता अब दर्शक नहीं रही
देश की जनता अब 90 के दशक वाली नहीं है। उसे पता है कि कौन मुद्दों की बात कर रहा है और कौन सिर्फ़ माइक्रोफोन पकड़कर इतिहास का पाठ पढ़ा रहा है।
वंदे मातरम् न कांग्रेस का है, न बीजेपी का। यह देश का है।
लेकिन कांग्रेस इसे आज भी एक राजनीतिक रिस्क की तरह देखती है—और यही उसकी सबसे बड़ी वैचारिक कमजोरी है।
राजनीति बदलो, गीत नहीं
देश को न नए विवाद चाहिए, न पुराने डर।
देश को चाहिए साफ़ राजनीति, साफ़ नीयत और साफ़ सवाल।
वंदे मातरम् पर बहस नहीं, विकास पर बहस होनी चाहिए।
लेकिन जब तक कांग्रेस राष्ट्रवाद को लेकर असमंजस में रहेगी, तब तक ऐसे सियासी ड्रामे चलते रहेंगे।
और राष्ट्रगीत?
वो तब भी अमर था, आज भी है—
बस राजनीति उससे छोटी पड़ती जा रही है।